'अपराध का राजनीतिकरण' और 'राजनीति का अपराधीकरण' ये दो विषय ऐसे हैं जिन पर पिछले कुछ वर्षों में न जाने कितनी बहसें हुईं, लेख लिखे गए, क़िताबें लिखी गईं और परीक्षाओं में निबंध पूछे गए.
इन सब जगहों पर अपराध और राजनीति के गठजोड़ के विभिन्न पहलुओं की पड़ताल की गई और सामाजिक-राष्ट्रीय संदर्भों में इसकी जमकर आलोचना हुई. लेकिन इस गठजोड़ की जितनी आलोचना हुई, यह उतना ही मज़बूत होता गया.
कानपुर में विकास दुबे के घर पर पुलिस के साथ हुई मुठभेड़ जैसी घटना और उसके बाद पुलिस की क़रीब सौ टीमों के सक्रिय होने के बावजूद उसका फ़रार हो जाना इस मज़बूती को न सिर्फ़ उजागर करता है, बल्कि पुष्ट भी करता है.
हत्या के प्रयास के एक मामले में विकास दुबे को गिरफ़्तार करने गई पुलिस टीम पर गुरुवार देर रात स्वचालित हथियारों से घरों की छतों पर मौजूद बदमाशों ने हमला किया जिसमें आठ पुलिसकर्मियों की मौत हो गई और सात पुलिसकर्मी गंभीर रूप से घायल हो गए.
इस घटना के बाद पूरे गांव की पुलिस ने घेराबंदी कर दी और विकास दुबे और उनके साथियों की तलाश में पुलिस और एसटीएफ़ की कई टीमें लगा दी गईं. विकास दुबे पर पचास हज़ार रुपये का इनाम पहले ही घोषित कर दिया गया था.
विकास दुबे के साथियों और पुलिस के साथ हुई मुठभेड़ के बाद विकास दुबे के आपराधिक इतिहास की जानकारी राज्य के डीजीपी हितेश चंद्र अवस्थी ने ख़ुद दी और बताया कि उनके ख़िलाफ़ चौबेपुर थाने में साठ मुक़दमे दर्ज हैं जिनमें कई हत्या और हत्या के प्रयास जैसे संगीन मामले भी शामिल हैं.
वहीं दूसरी ओर, विकास दुबे के राजनीतिक संबंधों की भी पड़ताल शुरू हुई और उनकी राजनीतिक कुंडली भी खंगाली जाने लगी तो पता चला कि उनके रिश्ते लगभग सभी राजनीतिक दलों से रहे हैं, भले ही वो सक्रिय रूप से किसी पार्टी के सदस्य न हों.
विकास दुबे की पत्नी के ज़िला पंचायत चुनाव लड़ते वक़्त के पोस्टरों पर समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव और पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव की तस्वीरों के साथ पोस्टर समाजवादी पार्टी के झंडे के ही रंग का है.
हालांकि इस पर पार्टी का चुनाव चिह्न नहीं है. पार्टी के एक नेता कहते हैं कि पंचायत चुनावों में इस तरह के पोस्टर कई उम्मीदवार छपवा लेते हैं जबकि चुनाव निर्दलीय लड़े जाते हैं.
कानपुर में आर्य नगर विधान सभा सीट से समाजवादी पार्टी के विधायक अमिताभ वाजपेयी साफ़तौर पर कहते हैं कि विकास दुबे उनकी पार्टी के सदस्य कभी नहीं रहे.
बीबीसी से बातचीत में अमिताभ वाजपेयी कहते हैं, "सपा में वो कभी नहीं रहे. मैं तो उस इलाक़े से साल 2007 में चुनाव भी लड़ चुका हूं लेकिन मेरे चुनाव में भी वो कभी मेरे साथ नहीं रहे. सामाजिक व्यक्ति हैं तो हर सरकार के साथ सट लेते हैं. उनके पोस्टर आपको सभी पार्टियों में दिख जाएंगे और कई पार्टियों के नेताओं के साथ उनकी तस्वीरें दिख रही हैं. लेकिन हमारी पार्टी में कभी नहीं रहे, ये मुझे भली-भांति मालूम है."
दरअसल, विकास दुबे के पोस्टर्स बहुजन समाज पार्टी के झंडे के रंग में और बीजेपी के झंडे के रंग में भी वायरल हो रहे हैं.
बीजेपी के कई नेताओं के साथ उनकी तस्वीरें भी वायरल हो रही हैं. लेकिन बीजेपी के नेता भी साफ़तौर पर पार्टी से उनके संबंधों को ख़ारिज करते हैं.
बीजेपी के एक बड़े नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, "पार्टी में किसी ज़िम्मेदार पद पर तो वो कभी नहीं रहे लेकिन सदस्यता के बारे में मैं कह नहीं सकता. क्योंकि हमारे यहां तो मिस्ड कॉल कर देने वाला भी सदस्य हो जाता है."
कानपुर में नवभारत टाइम्स के पत्रकार प्रवीण मोहता कहते हैं कि विकास दुबे किसी राजनीतिक पार्टी में भले ही न रहे हों लेकिन सभी पार्टियों के नेताओं से उनके अच्छे संबंध हैं और सभी के साथ वो सार्वजनिक मंचों पर अक्सर दिखते रहे हैं.
प्रवीण मोहता कहते हैं, "तमाम आपराधिक गतिविधियों में नाम सामने आने के बावजूद वो क़ानून की निगाहों से बचते रहे हैं और अपना आर्थिक साम्राज्य बढ़ाते रहे हैं तो यह बिना राजनीतिक पहुंच के संभव नहीं है. और इस बात के तमाम सबूत भी हैं कि सभी राजनीतिक दलों से उनके संबंध थे. हां, इतने कुख्यात हो जाने के बाद अब भले ही लोग इस बात से इनकार करें कि विकास दुबे से उनके कोई संबंध नहीं थे."
बिकरू गांव के एक व्यक्ति बताते हैं कि राजनीतिक दलों के नेताओं से विकास दुबे के न सिर्फ़ संबंध रहे हैं बल्कि आना-जाना भी रहा है. उनके यहां किसी भी कार्यक्रम में तमाम दलों के लोग आते थे और चाहे जिस पार्टी की सरकार रही हो, विकास दुबे कोई भी काम कराना चाहते थे तो वो आसानी से हो जाता था.
दरअसल, न सिर्फ़ विकास दुबे, बल्कि इस तरह के न जाने कितने कथित माफ़िया और अपराधी हैं जो राजनीतिक दलों से संबंध रखते हुए अपराध के माध्यम से आर्थिक समृद्धि हासिल करते रहे हैं और इससे राजनीतिक दलों को भी लाभ पहुंचाते रहे हैं.
लखनऊ में टाइम्स ऑफ़ इंडिया के राजनीतिक संपादक सुभाष मित्र कहते हैं, "राजनीतिक दलों में इनकी उपयोगिता है, चुनाव जीतने में ये महत्वपूर्ण कारक होते हैं, यह बात किसी से छिपी नहीं है. सबको मालूम है कि ये 'जिताऊ लोग' हैं. इनके पास पैसा, बाहुबल और कभी-कभी जातीय समीकरण भी ऐसा फ़िट बैठता है कि नेताओं के लिए उपयोगी साबित होते हैं. इसीलिए नेताओं के चुनाव जीतने के बाद ये अपने योगदान की वसूली भी करते हैं."
सुभाष मिश्र कहते हैं कि यदि बात विकास दुबे की ही की जाए तो साल 2001 में एक मंत्री की हत्या के मामले में यदि उसे क्लीन चिट मिली तो यह बिना सरकार की इच्छा के संभव नहीं था.
वो कहते हैं, "पुलिस उस वक़्त भी उसे गिरफ़्तार नहीं कर पाई थी. विकास दुबे ने तब सरेंडर किया था. उस वक़्त बीजेपी की सरकार थी. उसके बाद बसपा सरकार में उसने ख़ूब लाभ कमाया, फिर सपा सरकार में उस पर करोड़ों रुपये की ज़मीनें हड़पने के आरोप लगे. दरअसल, ये सब अपराधी, पुलिस और राजनीतिक दलों के नेक्सस का उदाहरण है और इस बारे में सब को मालूम है."
वो कहते हैं "साल 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान ही भारतीय जनता पार्टी ने बिहार के एक माफ़िया क़िस्म के व्यक्ति को पार्टी ज्वॉइन कराया और उनसे देवरिया में चुनाव प्रचार कराया क्योंकि उसे देवरिया में बीजेपी के कैंडीडेट कुछ कमज़ोर स्थिति में दिख रहे थे. बिहार के यह सज्जन आरजेडी से विधायक भी रह चुके हैं और देवरिया के ही रहने वाले हैं. विधानसभा में पार्टी उन्हें टिकट भी दे दे तो कोई आश्चर्य नहीं."
हालांकि लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र की राय इससे कुछ अलग है. वो कहते हैं, "स्थानीय स्तर पर माफ़िया-नेता गठजोड़ एक-दूसरे के काम आता है, यह सही है लेकिन राजनीतक दलों के शीर्ष नेतृत्व को कई बार धोखे में भी रखा जाता है. इसलिए ऐसे लोग आगे बढ़ते जाते हैं. यह ज़रूर है कि तमाम ऐसे लोग चुनाव भी लड़े और जीते भी लेकिन अक़्सर यही देखा जाता है कि पहले इस क़िस्म के लोग निर्दलीय ही लड़ते हैं. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह ट्रेंड ज़रूर बदला है. पार्टियों ने सुप्रीम कोर्ट की इतनी सख़्ती के बावजूद आपराधिक चरित्र वालों को टिकट दिया और वे लोग जीते भी."
योगेश मिश्र कहते हैं कि निश्चित तौर पर अपराध और राजनीति के गठजोड़ के लिए राजनीतिक दल ज़िम्मेदार हैं लेकिन मतदाता को भी थोड़ा जागरूक होना पड़ेगा और ऐसे लोगों को नकारने की आदत डालनी होगी.
वो कहते हैं, "सुप्रीम कोर्ट के सक्रिय होने से इस प्रवृत्ति में कुछ कमी ज़रूर आई है नहीं तो पहले विधान सभा में कई विधायक ऐसे थे. अभी भी हैं लेकिन उतने नहीं. एक बात और है, कई बार राजनीतिक रंजिश में भी कुछ केस लादे जाते हैं. ऐसे में ये अंतर करना मुश्किल हो जाता है कि असली माफ़िया कौन है."
हालांकि अपराध और राजनीति का यह गठजोड़ सिर्फ़ स्थानीय स्तर तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि देश की सर्वोच्च संसद तक इसका परिणाम देखने को मिलता रहता है.
गंभीर अपराधों में दर्ज मुक़दमों के साथ कितने लोग विधानसभा और लोकसभा का चुनाव न सिर्फ़ लड़े हैं बल्कि जीते भी हैं.
साल 2017 में हुए यूपी विधान सभा चुनाव में कुल 402 विधायकों में से 143 ने अपने ऊपर दर्ज आपराधिक मामलों का विवरण पेश किया था. इन नेताओं ने चुनावी हलफ़नामे में अपने ऊपर दर्ज मुक़दमों की जानकारी दी थी.
साल 2017 में भारी बहुमत हासिल कर सत्ता में आई बीजेपी के 37 फ़ीसद विधायकों पर अपराधिक मामले दर्ज हैं. बीजेपी के कुल 312 विधायकों में से 83 विधायकों पर संगीन धाराओं में मामले दर्ज हैं जिसका ज़िक्र उन्होंने अपने चुनावी हलफ़नामे में भी किया है.
समाजवादी पार्टी के 47 विधायकों में से 14 पर आपराधिक मामले दर्ज हैं, बीएसपी के 19 में से पांच विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं जबकि कांग्रेस के सात विधायकों में से एक पर आपराधिक मामले दर्ज हैं.
तीन निर्दलीय विधायक भी चुनाव जीते हैं और इन सभी पर आपराधिक मामले दर्ज हैं.
Source: BBC Hindi
कानपुर में विकास दुबे के घर पर पुलिस के साथ हुई मुठभेड़ जैसी घटना और उसके बाद पुलिस की क़रीब सौ टीमों के सक्रिय होने के बावजूद उसका फ़रार हो जाना इस मज़बूती को न सिर्फ़ उजागर करता है, बल्कि पुष्ट भी करता है.

इस घटना के बाद पूरे गांव की पुलिस ने घेराबंदी कर दी और विकास दुबे और उनके साथियों की तलाश में पुलिस और एसटीएफ़ की कई टीमें लगा दी गईं. विकास दुबे पर पचास हज़ार रुपये का इनाम पहले ही घोषित कर दिया गया था.
विकास दुबे के नाम दर्ज हैं क़रीब 60 मामले
शुक्रवार दोपहर तक विकास दुबे पुलिस की पकड़ में नहीं आ सका तो चौबेपुर थाना क्षेत्र के बिकरू गांव स्थित उनके आलीशान क़िलानुमा घर को ज़िला प्रशासन और पुलिस वालों ने बुलडोज़र की मदद से ढहा दिया. घर पर मौजूद कई लक्ज़री वाहन भी ज़मींदोज़ कर दिए गए.विकास दुबे के साथियों और पुलिस के साथ हुई मुठभेड़ के बाद विकास दुबे के आपराधिक इतिहास की जानकारी राज्य के डीजीपी हितेश चंद्र अवस्थी ने ख़ुद दी और बताया कि उनके ख़िलाफ़ चौबेपुर थाने में साठ मुक़दमे दर्ज हैं जिनमें कई हत्या और हत्या के प्रयास जैसे संगीन मामले भी शामिल हैं.
वहीं दूसरी ओर, विकास दुबे के राजनीतिक संबंधों की भी पड़ताल शुरू हुई और उनकी राजनीतिक कुंडली भी खंगाली जाने लगी तो पता चला कि उनके रिश्ते लगभग सभी राजनीतिक दलों से रहे हैं, भले ही वो सक्रिय रूप से किसी पार्टी के सदस्य न हों.
विकास दुबे की पत्नी के ज़िला पंचायत चुनाव लड़ते वक़्त के पोस्टरों पर समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव और पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव की तस्वीरों के साथ पोस्टर समाजवादी पार्टी के झंडे के ही रंग का है.
हालांकि इस पर पार्टी का चुनाव चिह्न नहीं है. पार्टी के एक नेता कहते हैं कि पंचायत चुनावों में इस तरह के पोस्टर कई उम्मीदवार छपवा लेते हैं जबकि चुनाव निर्दलीय लड़े जाते हैं.
कानपुर में आर्य नगर विधान सभा सीट से समाजवादी पार्टी के विधायक अमिताभ वाजपेयी साफ़तौर पर कहते हैं कि विकास दुबे उनकी पार्टी के सदस्य कभी नहीं रहे.
बीबीसी से बातचीत में अमिताभ वाजपेयी कहते हैं, "सपा में वो कभी नहीं रहे. मैं तो उस इलाक़े से साल 2007 में चुनाव भी लड़ चुका हूं लेकिन मेरे चुनाव में भी वो कभी मेरे साथ नहीं रहे. सामाजिक व्यक्ति हैं तो हर सरकार के साथ सट लेते हैं. उनके पोस्टर आपको सभी पार्टियों में दिख जाएंगे और कई पार्टियों के नेताओं के साथ उनकी तस्वीरें दिख रही हैं. लेकिन हमारी पार्टी में कभी नहीं रहे, ये मुझे भली-भांति मालूम है."
दरअसल, विकास दुबे के पोस्टर्स बहुजन समाज पार्टी के झंडे के रंग में और बीजेपी के झंडे के रंग में भी वायरल हो रहे हैं.
बीजेपी के कई नेताओं के साथ उनकी तस्वीरें भी वायरल हो रही हैं. लेकिन बीजेपी के नेता भी साफ़तौर पर पार्टी से उनके संबंधों को ख़ारिज करते हैं.
बीजेपी के एक बड़े नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, "पार्टी में किसी ज़िम्मेदार पद पर तो वो कभी नहीं रहे लेकिन सदस्यता के बारे में मैं कह नहीं सकता. क्योंकि हमारे यहां तो मिस्ड कॉल कर देने वाला भी सदस्य हो जाता है."
कानपुर में नवभारत टाइम्स के पत्रकार प्रवीण मोहता कहते हैं कि विकास दुबे किसी राजनीतिक पार्टी में भले ही न रहे हों लेकिन सभी पार्टियों के नेताओं से उनके अच्छे संबंध हैं और सभी के साथ वो सार्वजनिक मंचों पर अक्सर दिखते रहे हैं.
प्रवीण मोहता कहते हैं, "तमाम आपराधिक गतिविधियों में नाम सामने आने के बावजूद वो क़ानून की निगाहों से बचते रहे हैं और अपना आर्थिक साम्राज्य बढ़ाते रहे हैं तो यह बिना राजनीतिक पहुंच के संभव नहीं है. और इस बात के तमाम सबूत भी हैं कि सभी राजनीतिक दलों से उनके संबंध थे. हां, इतने कुख्यात हो जाने के बाद अब भले ही लोग इस बात से इनकार करें कि विकास दुबे से उनके कोई संबंध नहीं थे."
राजनेताओं से थे संबंध
बिकरू गांव के एक व्यक्ति बताते हैं कि राजनीतिक दलों के नेताओं से विकास दुबे के न सिर्फ़ संबंध रहे हैं बल्कि आना-जाना भी रहा है. उनके यहां किसी भी कार्यक्रम में तमाम दलों के लोग आते थे और चाहे जिस पार्टी की सरकार रही हो, विकास दुबे कोई भी काम कराना चाहते थे तो वो आसानी से हो जाता था.दरअसल, न सिर्फ़ विकास दुबे, बल्कि इस तरह के न जाने कितने कथित माफ़िया और अपराधी हैं जो राजनीतिक दलों से संबंध रखते हुए अपराध के माध्यम से आर्थिक समृद्धि हासिल करते रहे हैं और इससे राजनीतिक दलों को भी लाभ पहुंचाते रहे हैं.
लखनऊ में टाइम्स ऑफ़ इंडिया के राजनीतिक संपादक सुभाष मित्र कहते हैं, "राजनीतिक दलों में इनकी उपयोगिता है, चुनाव जीतने में ये महत्वपूर्ण कारक होते हैं, यह बात किसी से छिपी नहीं है. सबको मालूम है कि ये 'जिताऊ लोग' हैं. इनके पास पैसा, बाहुबल और कभी-कभी जातीय समीकरण भी ऐसा फ़िट बैठता है कि नेताओं के लिए उपयोगी साबित होते हैं. इसीलिए नेताओं के चुनाव जीतने के बाद ये अपने योगदान की वसूली भी करते हैं."
सुभाष मिश्र कहते हैं कि यदि बात विकास दुबे की ही की जाए तो साल 2001 में एक मंत्री की हत्या के मामले में यदि उसे क्लीन चिट मिली तो यह बिना सरकार की इच्छा के संभव नहीं था.
वो कहते हैं, "पुलिस उस वक़्त भी उसे गिरफ़्तार नहीं कर पाई थी. विकास दुबे ने तब सरेंडर किया था. उस वक़्त बीजेपी की सरकार थी. उसके बाद बसपा सरकार में उसने ख़ूब लाभ कमाया, फिर सपा सरकार में उस पर करोड़ों रुपये की ज़मीनें हड़पने के आरोप लगे. दरअसल, ये सब अपराधी, पुलिस और राजनीतिक दलों के नेक्सस का उदाहरण है और इस बारे में सब को मालूम है."
माफ़िया-नेता गठजोड़
सुभाष मिश्र कहते हैं कि सिर्फ़ यही नहीं बल्कि अन्य जगहों पर भी ऐसे लोग मिलेंगे जिनके ख़िलाफ़ दर्जनों केस चल रहे हैं, वो भी गंभीर धाराओं में, फिर भी पार्टियां न सिर्फ़ इन्हें अपने यहां जगह देती हैं बल्कि चुनाव में टिकट भी देती हैं.वो कहते हैं "साल 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान ही भारतीय जनता पार्टी ने बिहार के एक माफ़िया क़िस्म के व्यक्ति को पार्टी ज्वॉइन कराया और उनसे देवरिया में चुनाव प्रचार कराया क्योंकि उसे देवरिया में बीजेपी के कैंडीडेट कुछ कमज़ोर स्थिति में दिख रहे थे. बिहार के यह सज्जन आरजेडी से विधायक भी रह चुके हैं और देवरिया के ही रहने वाले हैं. विधानसभा में पार्टी उन्हें टिकट भी दे दे तो कोई आश्चर्य नहीं."
हालांकि लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र की राय इससे कुछ अलग है. वो कहते हैं, "स्थानीय स्तर पर माफ़िया-नेता गठजोड़ एक-दूसरे के काम आता है, यह सही है लेकिन राजनीतक दलों के शीर्ष नेतृत्व को कई बार धोखे में भी रखा जाता है. इसलिए ऐसे लोग आगे बढ़ते जाते हैं. यह ज़रूर है कि तमाम ऐसे लोग चुनाव भी लड़े और जीते भी लेकिन अक़्सर यही देखा जाता है कि पहले इस क़िस्म के लोग निर्दलीय ही लड़ते हैं. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह ट्रेंड ज़रूर बदला है. पार्टियों ने सुप्रीम कोर्ट की इतनी सख़्ती के बावजूद आपराधिक चरित्र वालों को टिकट दिया और वे लोग जीते भी."
योगेश मिश्र कहते हैं कि निश्चित तौर पर अपराध और राजनीति के गठजोड़ के लिए राजनीतिक दल ज़िम्मेदार हैं लेकिन मतदाता को भी थोड़ा जागरूक होना पड़ेगा और ऐसे लोगों को नकारने की आदत डालनी होगी.
वो कहते हैं, "सुप्रीम कोर्ट के सक्रिय होने से इस प्रवृत्ति में कुछ कमी ज़रूर आई है नहीं तो पहले विधान सभा में कई विधायक ऐसे थे. अभी भी हैं लेकिन उतने नहीं. एक बात और है, कई बार राजनीतिक रंजिश में भी कुछ केस लादे जाते हैं. ऐसे में ये अंतर करना मुश्किल हो जाता है कि असली माफ़िया कौन है."
हालांकि अपराध और राजनीति का यह गठजोड़ सिर्फ़ स्थानीय स्तर तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि देश की सर्वोच्च संसद तक इसका परिणाम देखने को मिलता रहता है.
गंभीर अपराधों में दर्ज मुक़दमों के साथ कितने लोग विधानसभा और लोकसभा का चुनाव न सिर्फ़ लड़े हैं बल्कि जीते भी हैं.
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साल 2017 में हुए यूपी विधान सभा चुनाव में कुल 402 विधायकों में से 143 ने अपने ऊपर दर्ज आपराधिक मामलों का विवरण पेश किया था. इन नेताओं ने चुनावी हलफ़नामे में अपने ऊपर दर्ज मुक़दमों की जानकारी दी थी.
साल 2017 में भारी बहुमत हासिल कर सत्ता में आई बीजेपी के 37 फ़ीसद विधायकों पर अपराधिक मामले दर्ज हैं. बीजेपी के कुल 312 विधायकों में से 83 विधायकों पर संगीन धाराओं में मामले दर्ज हैं जिसका ज़िक्र उन्होंने अपने चुनावी हलफ़नामे में भी किया है.
समाजवादी पार्टी के 47 विधायकों में से 14 पर आपराधिक मामले दर्ज हैं, बीएसपी के 19 में से पांच विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं जबकि कांग्रेस के सात विधायकों में से एक पर आपराधिक मामले दर्ज हैं.
तीन निर्दलीय विधायक भी चुनाव जीते हैं और इन सभी पर आपराधिक मामले दर्ज हैं.
Source: BBC Hindi
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