2022, 2024 इलेक्शन में पसमांदा मुस्लिमों को अपनी स्ट्रैटिजी बदलनी होगी और अपने विकल्प खुले रखने होंगे.
सीएसडीएस निदेशक संजय कुमार के मुताबिक- बीजेपी को पिछले तीन-चार इलेक्शन में 7% वोट मिलता रहा है. ऐसे में यह बहुत ज्यादा नहीं कहा जा सकता. 2009 में उसे सबसे कम मुस्लिम वोट मिला था. यह लोकल एवं पर्सनल कंसीडरेशन भी हो सकता है. जहां दो-चार फीसदी ही मुस्लिम हैं. उन्होंने देखा होगा कि हवा के रुख के साथ जाना ठीक होगा. इसलिए भी बीजेपी के पक्ष में पहले के मुताबिक थोड़ा मुस्लिम वोट परसेंट बढ़ा है.'
राजनीतिक विश्लेषक एवं '24 अकबर रोड' के लेखक रशीद किदवई का कहना है कि बीजेपी के कुछ नेताओं की मुस्लिमों में अच्छी पैठ है. वो उनकी निजी छवि के नाते. गुजरात के बोहरा मुस्लिमों का वोट पारंपरिक रूप से बीजेपी को मिलता रहा है. मध्य प्रदेश में बीजेपी के पार्षद स्तर के सौ से अधिक मुस्लिम नेता हैं. अगर हम बारीकी से देखें तो पता चलता है कि मुस्लिमों और बीजेपी के बीच विश्वास की कमी है. इसे दूर करने की ज़रूरत है.
किदवई के मुताबिक बीजेपी में बहुत कम मुस्लिम नेता हैं. मुख्तार अब्बास नकवी, एमजे अकबर, शहनवाज हुसैन, शाज़िया इल्मी जैसे कुछ ही गिने-चुने नेता हैं. मुस्लिमों को टिकट देने के मामले में बीजेपी अन्य पार्टियों से काफी पीछे है. 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में पार्टी ने एक भी मुस्लिम नेता को टिकट नहीं दिया. जब उन्हें भागीदारी दी जाएगी तो वोट भी मिलेगा.
विधानसभा चुनाव 2017 में भी बीजेपी ने चौंका दिया
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2017 में भी बीजेपी ने कई मुस्लिम बहुल सीटों पर भी जीत हासिल की. इनमें सबसे ज़्यादा चर्चा देवबंद सीट की हुई, जहां से बीजेपी उम्मीदवार ब्रजेश ने क़रीब 30 हज़ार वोटों से जीत हासिल की थी. इस सीट पर दूसरे नंबर पर बहुजन समाज पार्टी के माजिद अली रहे जबकि तीसरे नंबर पर समाजवादी पार्टी के माविया अली रहे.
इसके अलावा मुरादाबाद नगर सीट भी बीजेपी की झोली में आई. यहां से समाजवादी पार्टी के मौजूदा विधायक यूसुफ़ अंसारी को भाजपा के रीतेश कुमार गुप्ता ने क़रीब बीस हज़ार वोटों से हराया. इस सीट पर तीसरे नंबर पर बसपा के अतीक़ सैफ़ी रहे जिन्होंने 24,650 वोट हासिल किए. मुरादाबाद की ही मुस्लिम बहुल कांठ सीट पर बीजेपी के राजेश कुमार चुन्नू ने सपा के अनीसुर्रहमान को 2348 मतों से हराया. इस सीट पर तीसरे नंबर पर बसपा के मोहम्मद नासिर रहे.
फ़ैज़ाबाद की रुदौली सीट से भाजपा के रामचंद्र यादव ने सपा के अब्बास अली ज़ैदी को क़रीब तीस हज़ार वोटों से हराया. इस सीट पर बहुजन समाजवादी पार्टी के फ़िरोज़ ख़ान उर्फ़ गब्बर ने 47 हज़ार से अधिक मत हासिल किए. शामली ज़िले की थाना भवन सीट से भी बीजेपी के सुरेश कुमार ने बसपा के अब्दुल वारिस ख़ान को हराया. इस सीट पर दूसरे नंबर पर राष्ट्रीय लोकदल के जावेद राव रहे. उतरौला सीट से बीजेपी के राम प्रताप ने सपा के आरिफ़ अनवर हाशमी को हराया. इस सीट पर बहुजन समाज पार्टी के परवेज़ अहमद तीसरे नंबर पर रहे. इन चुनावों में भी गैर-बीजेपी पार्टियों के मुस्लिम कैंडिडेट्स को टिकट देने के चलते मुसलमान वोट बेअसर साबित हो गया.
मुस्लिम वोट बैंक का झूठ
सीएसडीएस में असोसिएट प्रोफ़ेसर हिलाल अहमद लगातार मुस्लिम वोट बैंक को एक 'मिथ' (झूठ) करार देते रहे हैं. हिलाल कहते हैं कि बाकी सभी धर्मों के लोगों की तरह मुस्लिम समाज को भी क्लास-कास्ट विभाजन के आधार पर ही देखा-समझा जाना चाहिए. किसी भी राजनीतिक पार्टी ने आज तक मुसलमानों को महज एक वोट बैंक से इतर देखने की कोशिश ही नहीं की है, क्योंकि उन सभी का फायदा इसी में है. हिलाल दावा करते हैं कि अगर आप मुस्लिम वोटिंग पैटर्न को करीब से देखेंगे तो पता चलेगा कि कैसे इस समाज को 'वोट बैंक' के नाम पर ठगा जाता रहा है.
हिलाल लिखते हैं कि साल 1950 में पहली बार 'मुस्लिम वोट बैंक' की सोच पैदा हुई. सोशियोलॉजिस्ट एमएन श्रीनिवास ने साल 1953 में कर्नाटक में एक फील्ड स्टडी के दौरान पहली बार वोट बैंक शब्द का इस्तेमाल किया, हालांकि उनका इससे मतलब सिर्फ नेताओं और छोटे-छोटे इलाकों के ओपिनियन लीडर्स के रिश्ते से था. श्रीनिवास का मानना था कि यही ओपिनियन लीडर्स किसी भी नेता के लिए एक 'वोट बैंक' तैयार करते हैं. ये अक्सर कास्ट और कम्युनिटी आधारित होते हैं जिसका फायदा चुनावों में नज़र आता है. हिलाल के मुताबिक इस तरह की राजनीति से सोशलिस्ट लीडर जयप्रकाश नारायण भी इत्तेफाक नहीं रखते थे. उन्होंने कई मौकों पर कहा था कि किसी आबादी को वोट बैंक में तब्दील करने से उसके अंदर से आने वाली अलग-अलग तरह की आवाजों की जगह ख़त्म हो जाती है.
हिलाल अपनी सीरीज 'सरकारी मुसलमान' में लिखते हैं कि साल 1967 में मुस्लिम वोट बैंक सबसे ज्यादा चर्चाओं में आया. तब गैर-कांग्रेसी दल मज़बूती से मौजूदगी दर्ज करा रहे थे. और कांग्रेस के मुकाबले के लिए माइनॉरिटी, दलित और ओबीसी वोट बैंक का समीकरण तैयार करने लगे. जवाब में कांग्रेस ने सबसे पहले मुस्लिम मौलानाओं को बुलाया और वोट बैंक के इस विचार को जोर-शोर से बढ़ावा दिया गया. यह फ़ॉर्मूला इसलिए भी चला क्योंकि मुस्लिम समाज खुद भी जाति/बिरादरी और स्थानीय राजनीति पर बात किए बिना राष्ट्रीय स्तर की 'मुस्लिम एकता' का सपना देख रहा था. मुस्लिम वोट बैंक को आधार बनाकर 'मुस्लिम मुद्दे' भी अस्तित्व में आए और ऐसी सोच बनाई गई कि मुसलमानों को सिर्फ़ तीन तलाक़, पर्सनल लॉ, उर्दू, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और बाबरी मस्जिद में ही दिलचस्पी है. इसका फ़ायदा ये हुआ कि इन्हीं मुद्दों के इर्द-गिर्द इस पूरे समाज को लेकर नज़रिया बनाया गया और लगा कि यह पूरा समाज ही इसी एक लाइन पर सोच रहा है.
मुस्लिम वोट बैंक: किसका नुकसान ?
वरिष्ठ पत्रकार और पसमांदा मुस्लिम फ्रंट के अध्यक्ष रहे यूसुफ़ अंसारी कहते हैं कि इस राजनीति का सबसे ज्यादा नुक़सान ओबीसी और दलित मुसलमानों को हुआ. यूपी की बात करें तो लगातार अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों में रहकर मुसलमानों की नुमाइंदगी का दावा करने वाले लोग जो सभी के सभी अशराफ मुसलमान हैं, इस वोट बैंक का भ्रम बनाए रखने की साज़िश करते रहे, क्योंकि उनका फ़ायदा इसी में था. यूसुफ़ बताते हैं कि कांग्रेस के सलमान खुर्शीद सैयद हैं, गुलाम नबी आज़ाद कश्मीरी ब्राह्मण हैं, सपा के आज़म खान भी सैयद हैं, बसपा के मुनकाद अली भी सैयद हैं तो मामला यह रहा कि शेख, सैयद, मुग़ल और पठान लगातार लीडर रहे लेकिन इन्होंने कभी ओबीसी-दलित मुस्लिम जातियों की आवाज़ नहीं उठाई.
मुसलमान समाज में मौजूद जातीय व्यवस्था पर किताब 'मसावत की जंग' के लेखक और पूर्व सांसद अली अनवर का भी मानना है कि भारत में मौजूद मुस्लिम राजनीति में अजलाफ और अरजाल का नेतृत्व सिरे से गायब है. इन दोनों समुदायों से वोट चाहिए लेकिन न तो इन्हें टिकट दिया जाता है. आज़ादी के बाद से एक ख़ास समाज मुद्दे तय करता है और ये बताता रहता है कि इन दोनों समाज के लिए क्या ज़रूरी है. आमतौर पर अशराफ न तो अजलाफ-अरजाल जातियों में शादी करते हैं न उनके साथ किसी तरह का संबंध रखना पसंद करते हैं. बिहार में तो साल 2010 में पिछड़े मुसलमानों के लिए कब्रिस्तान तक अलग कर देने का मामला सामने आया, जो नेशनल मीडिया की सुर्खियां भी बना था. दरअसल इस तरह का कोई सिस्टम इस्लाम में नहीं है इसलिए इस पर बात करने से भी एतराज जताया जाता है और की भी जाए तो ऐसा करने वाले को इस्लाम बांटने वाला करार दिया जाता है.
ध्रुवीकरण से ओबीसी-दलित मुस्लिम नुकसान में
युसूफ कहते हैं कि पसमांदा मुसलमान तो लगातार एक चक्रव्यूह में फंसा है. लगातार 'इस्लाम खतरे में' रहता है जिसके बदले ओबीसी-दलित मुसलमानों को अपने मुद्दों पर बोलने से रोका जाता रहा है. हिंदू दलितों को जब आबादी के हिसाब से रिजर्वेशन मिला है तो मुस्लिमों को इससे महरूम क्यों रखा जा रहा है. अभी कुछ सालों से 'हिंदू' भी खतरे में हैं तो मुसलमानों से उम्मीद की जाती है कि वो एकजुट रहें और इसी नाम पर मुस्लिम समाज का पिछड़ा तबका लगातार ठगा जाता है. जबकि सच तो ये है कि मुस्लिम भी अन्य समुदायों की तरह वोट करते हैं और 2014 में यूपी में एक भी सीट न आना ये साबित करता है.
ऑल इंडिया मिल्ली काउंसिल के एमए खालिद कहते हैं, '2022, 2024 में मुस्लिमों को अपनी स्ट्रैटिजी बदलनी होगी और अपने विकल्प खुले रखने होंगे.' आजमगढ़ के शिबली नेशनल कॉलेज में राजनीतिक शास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रो. गयास असद खां कहते हैं, 'राजनीतिक पार्टियों ने मुसलमानों को केवल वोट बैंक के रूप में ही प्रचारित किया, जबकि ऐसा नहीं था. मुसलमान किसी पार्टी से तभी जुड़ा जब उसके पास अपना कोई वोट आधार था. इस बार के चुनाव में पार्टियों ने अपने वोट आधार की चिंता छोड़ सारी कवायद मुसलमानों के वोट पाने में ही लगा दी. इससे जहां एक ओर मुसलमानों में दुविधा पैदा हुई और वहीं दूसरी ओर इसके ख़िलाफ़ हिंदू वोट एकजुट हो गए. इसी का नतीजा चुनाव में दिखाई दिया.'
Source: News 18 Hindi
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